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भी देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य व साधारणद्रव्यका उपभोग किसी प्रकार भी न करना चाहिये. और इसी हेतुसे माल पहिराना, पहरामणी, न्युंछन इत्यादिकका स्वीकृत किया हुआ द्रव्य उसी समय दे देना चाहिये. कदाचित ऐसा न होसके तो जितना शीघ्र दिया जाय उतना ही गुणकारी है. बिलम्ब करने से कभी २ दुर्देव से सर्वद्रव्यकी हानि अथवा मृत्यु आदि होजाना संभव
और ऐसा होवे तो सुश्रावकको भी अवश्य नरकादि दुर्गतिको जाना पडता है । इस विषय में ऐसी बात सुनते हैं कि-
महापुर नामक नगर में अरिहंतका भक्त ऋषभदत्त नामक बडा श्रेष्ठी रहता था. वह किसी पर्व पर मंदिरको गया साथ में द्रव्य न होनेसे उधार खाते पहिरावणीका द्रव्य देना स्वीकार किया. बहुत से कार्यों में लग जानेसे वह उक्त द्रव्य शीघ्र न दे सका. एक समय दुर्दैववश उसके घर पर डाका पडा. शस्त्रधारी चोरोंने उसका समस्त द्रव्य लुट लिया, और " भविष्य में श्रेष्ठी अपनेको राजदंड दिलावेगा. " ऐसा मनमें भय होनेसे उन्होंने ऋषभदत्त श्रेष्ठीको भी मार डाला. ऋषभदत्तका जीव उसी महापुर नगर में एक निर्दय, दरिद्री और कृपण भिश्तीके घर पाडा ( भैंसा ) के रूप में उत्पन्न हुआ. और नित्य घर घर जलादिक भार उठा कर लेजाने लगा. वह नगर ऊंचा था, व नदी बहुत गहरी थी. जिससे ऊंची भूमि चढना, रातदिन बोझा उठाना, धूप भूख तथा पीठपर पडती मार सहना इत्यादि महावेदनाएं