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रख कर विचार किया कि इस चैत्रको मार कर मैं सर्व द्रव्य ले लूं और तुरत मारने को उठा । अनर्थको पैदा करनेवाले ऐसे द्रव्यको धिक्कार है ! जिस भांति दुष्ट वायु मेघको छिन्न भिन्न कर देता है उसी भांति द्रव्यका लोभी मनुष्य विवेक, सत्य, संतोष, लज्जा, प्रीति तथा दया आदि सद्गुणों को शीघ्र नष्ट कर देता है | परन्तु सुदैवके योगसे उसी समय मैत्रके चित्तमें विवेकरूपी सूर्यका उदय हुआ और उससे लोभरूप गाढ अन्धकारका नाश होगया । वह विचार करने लगा कि, "मुझ पर विश्वास करनेवाले मित्रका बध करने वाले मुझको धिक्कार है । ऐसे अध्यवसाय से मैं निंद्यसे भी निंद्य होगया "। इत्यादि विचार करता हुआ वह यथावत् अपने स्थान पर बैठ गया ।
प्रातःकाल होते ही पुनः भ्रमण करना प्रारंभ किया । जिस भांति गड्ढा खोदने से बढता है उसी भांति लाभसे लोभ भी बढता है, साथ ही अतिलोभ करनेसे इसी लोकमें एकदम अनर्थकी उत्पत्ति होती है, इसमें संशय नहीं ।
लोभरूप नदी के पूरमें डूबे हुए वे दोनों ब्राह्मण एक समय मार्ग में आई हुई वैतरणी नदीके पूरमे उतरे तथा डूबकर मर गये, तथा प्रथम तिच योनि पाई । पश्चात् नाना भव भ्रमण करके हे श्रीदत्त ! तुम दोनों मित्र ( शंखदत्त व श्रीदत्त ) हुए । शंखदत्तने पूर्वभवमें तेरे वधका विचार किया था इससे तूने