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(११३) आम्रवृक्षोंमें शुकके समान हमारा स्वामी शुकराज तोराजमहलमें है, तूं तो कोई वेषधारी विद्याधर है. अधिक क्या कहूं ? जैसे चूहा बिलाडके दर्शनमात्रसे डरता है वैसे ही हमारा स्वामी शुकराज तेरे दर्शन मात्र से कांपता है तथा बहुत डरता है, इसलिये तू शीघ्र यहांसे चला जा."
खिन्न चित्त हो कर शुकराज विचार करने लगा कि, "निश्चय किसी कपटीने छलभेदसे मेरा स्वरूप करके मेरा राज्य ले लिया है, कहा है कि
राज्यं भोज्यं च शय्या च, वरवेश्म वरांगना । धनं चैतानि शून्यत्वेऽधिष्ठीयन्ते ध्रुवं परैः॥ ८३५ ॥
१ राज्य, २ भक्षण करने योग्य वस्तु, ३ शय्या, ४ रमणीय घर, ५ रूपवती स्त्री तथा ६ धन इन छः वस्तुओंको मालिककी अनुपस्थितिमें अन्य लोग हरण करलेते हैं. अब क्या करना चाहिये ? जो मैं इसे मारकर अपना राज्य लेऊं तो संसारमें मेरा भारी अपवाद होगा कि, "कोई महापापी ठगने मगरमच्छकी भांति बलपूर्वक राजा मृगध्वजके पुत्र शुकराजका वधकर उसका राज्य हस्तगत कर लिया है." पश्चात् उसने तथा उसकी दोनों स्त्रियों ने अपना परिचय देनेके हेतु बहुतसी निशानियां बताई, पर किसीने विश्वास न किया, धिकार है ऐसे कपटमय कृत्यको! तत्पश्चात् अपना अपमान हुआ समझ कर वह सच्चा शुकराज विमानमें बैठकर आकाशमार्ग