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जावे ? " इतने ही में विद्याधरेश विचित्र गति राजा चारित्रवंत हुए अपने पिता के उपदेश से पंच महाव्रत ग्रहण करने को तैयार हुआ. उसको एक कन्या थी अतः उसने प्रज्ञप्ति विद्याको पूछा कि, " मेरी पुत्री विवाह कर मेरा राज्जा चलाने योग्य कौन पुरुष है ? प्रज्ञप्तिने कहा कि, " तू तेरी पुत्री व राज्य सुपात्र धर्मदत्तको देना. " विद्या के इन वचनोंसे विद्याधरको बहुत हर्ष हुआ. तथा धर्मदत्तको बुलाने के लिये राजपुर नगरको आगा. वहां धर्मदत्त के मुख से धर्मरति कन्या के स्वयंवरके समाचार सुन, विचित्र गति धर्मदत्तको साथ ले देवताकी भांति अदृश्य हो धर्मरति स्वयम्वर मंडपमें आया. व उन दोनोंने वहां कन्याने किसीको भी अंगीकार न किया, इससे सब राजाओंको उदास व निस्तेज अवस्था में देखा. सब लोग आकुल व्याकुल हो रहे थे कि " अब क्या होगा ? " इतने ही में प्रातःकालके सूर्यकी भांति विचित्र गति व धर्मदत्त प्रकट हुए. राजकन्या धर्मरति धर्मदत्त को देखते ही संतुष्ट हुई, और जैसे रोहिणीने वसुदेवको वरा वैसे ही उसने धर्मदत्त के गले में वरमाला डाल दी. पूर्वभवका प्रेम अथवा द्वेष ये दोनों अपने अपने उचित कमोंमें जीवको प्रेरणा करते हैं. बाकी तीनों दिशाओंके राजा वहां आये हुए थे. उन्होंने विद्याधरकी सहायता से अपनी तीनों पुत्रियोंको विमानमें बिठाकर वहां बुलवाई और बडे हर्ष के साथ उसी समय धर्मदत्तको दीं । पश्चात् धर्मदत्त विद्याधरके किये