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तना होती है । २ गुरुको शिष्यके खंखार (कफ) थूक आदिका स्पर्श होवे तो मध्यम आशातना होती है और ३ गुरुकी आज्ञा न पालना, उससे उलटा करना, गुरुकी आज्ञा न सुनना तथा कठोर वचन बोलना इत्यादिकसे उत्कृष्ट आशातना होती है।
स्थापनाचार्यजीकी आशातना तीन प्रकारकी है। यथाः-- १ स्थापनाचार्यजीको इधर उधर फिरावे, अथवा पग आदि लगावे तो जघन्य आशातना होती है, २ भूमि पर रखे अथवा अवज्ञा ( तिरस्कार ) से पटक दे तो मध्यम आशातना होती है, और ३ खो देवे अथवा तोड डाले तो उत्कृष्ट आशातना होती है । ज्ञानोपकरणकी भांति रजोहरण, मुहपत्ति, दांडा दांडी आदि दर्शनके व चारित्रके उपकरणकी भी आशातना टालना। कारण कि, “ नाणाइतिअं" ऐसे वचनसे ज्ञानोपकरणकी भांति दर्शनोपकरण और चारित्रोपकरणकी भी गुरूके स्थान पर स्थापना होती है, इसलिये विधिसे वापरनेकी अपेक्षा अधिक वापर कर उनकी आशातना न करना । श्रीमहानिशीथसूत्र में कहा है कि अपना आसन, उत्तरासंग, रजोहरण, अथवा दांडा अविधिसे वापरनेसे, एक उपवासकी आलोयणा आती है। इसलिये श्रावकोंने भी चरवला, मुहपत्ति आदि उपकरण विधिसे वापरना और ठीक अपने २ स्थान पर रखना । ऐसा न करनेसे धर्मकी अवज्ञाआदि दोष सिर पर आता है। इन आशातनाओंमें उत्सू