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(३१०) सिद्धान्तमें तीर्थंकरादिकने अनन्तसंसारी कहा है। मूल और उत्तर भेदसे भी दो प्रकारका चैत्यद्रव्य कहा है । उसमें स्तंभ, कुंभी आदि मूलद्रव्य और छप्पर आदि उत्तरद्रव्य है । अथवा स्वपक्ष व परपक्ष इन दो भेदोंस भी दो प्रकारका चैत्यद्रव्य जानना । उसमें श्रावकादिक स्वपक्ष और मिथ्यादृष्टिआदि परपक्ष हैं । सर्वसावधसे विरत साधु भी चैत्यद्रव्यकी उपेक्षा करनेसे यदि अनंतसंसारी होता है, तो फिर श्रावक होवे इसमें तो आश्चर्य ही क्या है ?
शंकाः- त्रिविधत्रिविध सर्वसावद्यका पच्चखान करनेवाले साधुको चैत्यद्रव्यकी रक्षा करने का अधिकार किस प्रकार आता है ?
समाधानः - जो साधु राजा, मंत्रीआदिके पाससे मांग कर घर दूकान, गांव इत्यादि मंदिर खाते दिलाकर इस दान कर्मसे चैत्यद्रव्यमें नया फैलाव करे तो उस साधुको दोष लगता है ! कारण कि, ऐसे सावध काम करनेका साधुको अधिकार नहीं । परन्तु कोई भद्रकजीवका धर्मादिकके निमित्त पूर्वमें दिया हुआ अथवा दूसरा चैत्यद्रव्य विनष्ट होता हो तो उसका यदि साधु रक्षण करे, तो कोई दोष नहीं। इतना ही नहीं बल्कि ऐसा करनेमें जिनाज्ञाकी सम्यग्रीतिसे आराधना होनेसे साधु-धर्मको पुष्टि मिलती है । जैसे साधु नया जिनमंदिर न बनवावे, किन्तु पूर्वके बने हुए जिनमंदिरकी रक्षा करे,