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तो उस साधुको कुछ भी प्रायश्चित्त नहीं लगता, अथवा सर्वसावद्यविरतिरूप प्रतिज्ञाको भी बाधा नहीं आती। ऐसा ही चैत्यद्रव्यकी रक्षा में भी जानो । आगम में भी ऐसी ही व्यवस्था है । शंकाकार कहता है कि - " जिनमंदिर संबंधी क्षेत्र, सुवर्ण, ग्राम, गाय इत्यादि वस्तुके सम्बन्धमें आनेवाले साधुकी त्रिकरण शुद्धि किस प्रकार होती है ? " उत्तर में सिद्धान्ती कहते हैं कि - " यहां दो बातें हैं, जो साधु मंदिर सम्वन्धी वस्तु स्वयं मांगे, तो उसकी त्रिकरण शुद्धि नहीं होती, परन्तु जो कोई यह (चैत्य संबंधी) वस्तु हरण करे, और साधु उस विषय की उपेक्षा करे, तो उसकी त्रिकरण शुद्धि नहीं होती; इतना ही नहीं बल्कि चैत्यद्रव्यहरणोपेक्षा से अभक्ति भी होती है । इसलिये किसीको भी हरण करते हुए अवश्य मना करना चाहिये । कारण कि. सर्वसंघने सब यत्न से चैत्यद्रव्यकं रक्षगमें और भक्षणके उपे क्षणका निषेधमें लगना ही चाहिए, यह देवद्रव्य रक्षण करनेका कार्य चारित्रसे युक्त और चारित्रसे रहित ऐसे सभी जैनियों का है ।
वैसे ही स्वयं चैत्यद्रव्य खानेवाला, दूसरे खानेवालेकी उ पेक्षा करनेवाला और उधार देकर किंवा अन्यरीति से चैत्यद्रव्यका नाश करनेवाला अथवा कौनसा काम थोडे द्रव्यमें हो सकता है व किस काममें अधिक द्रव्य लगता है इस बातकी खबर न होने से मतिमंदतासे चैत्यद्रव्यका नाश करनेवाला अ