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(२९७) ध्योंसे बिना द्रव्य ही के हो जावें ऐसे हैं । अतएव जिसकी जो करनेकी शक्ति होवे, उसे उस कार्यमें वैसी ही उचित चिन्ता करना । जो उचित चिंता थोडे समय में होसके ऐसी हो वह दूमरी निसिहीसे पहिले ही करना, इसके अनन्तर भी जैसा योग होवे वैसा करना।
ऊपर जैसे मंदिरकी उचित चिंता कही, वैसे ही धर्मशाला गुरु, ज्ञान आदिकी भी उचित चिंता अपनी पूर्णशक्तिसे करना । कारण कि देव, गुरु आदिकी चिन्ता करने वाला श्रावकके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है । जैसे एक गायके बहुतसे मालिक ब्राह्मण उसका दूध तो निकाल लेते हैं पर उसे घास पानी कोई नहीं देते, उस तरह देव, गुरु आदिकी उपेक्षा अथवा उनके काममें आलस्य न करना । कारण कि, ऐसा करनेसे समय पर सम्यक्त्वका भी नाश हो जाता है । आशातना आदि होते जो अपनेको अतिदुःख न हो तो वह कैसी अरिहंत आदिकी भक्ति ? लौकिकमें भी सुनते हैं कि, महादेवकी आंख उखडी हुई देखकर अत्यंत दुःखित हुए भीलने अपनी आंख महादेवको अर्पण की थी. इसलिये सदैव देवगुरुआदिके काम स्वजन संबन्धियोंके कामकी अपेक्षा भी आदर पूर्वक करना. हम यह कहते हैं कि- सर्व संसारी जीवोंकी देह, द्रव्य और कुटुम्ब पर जैसी प्रीति होती है, वैसी ही प्रीति मोक्षाभिलाषी जीवोंकी जिन-प्रतिमा, जिनमत और संघके ऊपर होती है। देव, गुरु