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घात दृष्टिमें नहीं आती । स्थविरके संप्रदायादिकसे भी कोई गच्छमें यह रीति नहीं पाई जाती। साथ ही जो देहातादिकमें द्रव्यप्राप्तिका उपाय नहीं होता, वहां प्रतिमाके सन्मुख धरे हुए अक्षतआदि वस्तुके द्रव्य ही से प्रतिमा पूजी जाती है । जो अक्षतादि निर्माल्य होते तो उससे प्रतिमाकी पूजा भी कैसे होती ? अतः उपभोग करनेसे निरुपयोगी हुई वस्तु ही को निर्माल्य कहना वही युक्ति संगत है । और "भोगविण दव्वं, निम्मलं बिंति गीअत्था " यह आगमवचन भी इस बातको आधारभूत है। तत्र तो केवली जाने | चंदनफूल आदि वस्तुसे पूजा इस प्रकार करना कि, जिससे प्रतिमा - के नेत्र तथा मुख न ढकने पावे, व पूर्वकी अपेक्षा विशेष शोभा होवे, कारण कि वैसा करने ही से दर्शकको हर्ष, पुण्यकी वृद्धि इत्यादि होना संभव है ।
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अंगपूजा, अग्रपूजा और भावपूजा ऐसे पूजा के तीन प्रकार हैं । जिसमें प्रथम अंगपूजामें कौन २ सी वस्तु आवे उसका वर्णन करते हैं । निर्माल्य उतारना, पूंजनीसे पूंजना, अंग प्रक्षालन करना, बालाकूंचीसे केशर आदि द्रव्य उतारना, केशरादिक द्रव्यसे पूजा करना, पुष्प चढाना, पंचामृत स्नात्र करना, शुद्धजलसे अभिषेक करना, धूप दिये हुए निर्मल तथा कोमल ऐसे गंधकषायिकादि वस्त्रसे अंग लोहना ( पोंछना ), कपूर, कुंकम प्रमुख वस्तुसे मिश्र किये हुए गोशीर्षचन्दन से