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(२७६) भी शाप पाई हुई स्त्रीकी भांति मुझे संसारमें सारभूत पुत्र क्यों नहीं होता ?, पुत्र के लिये मैं दुःखी हूं यह तू कैसे जानता है, और मनुष्यवाणीसे तु किस प्रकार बोलता है ? " हंस बोला “ मेरी बात पूछनेका तुझे क्या प्रयोजन ? मैं तुझे हितकारी वचन कहता हूं. धन, पुत्र, सुख आदि सर्व वस्तुकी प्राप्ति पूर्वभवमें किये हुए कर्मके आधीन हैं, इस लोकमें किया हुआ शुभकर्म तो बीचमें आते हुए अंतरायको दूर करता है. बुद्धिमान मनुष्य जिस किसी देवताकी पूजा करते हैं, वह मिथ्या है, और उससे मिथ्यात्व लगता है. एक मात्र जिनप्रणीत धर्म ही जीवोंको इस लोकमें तथा परलोकमें वांछितवस्तुका दाता है. जो जिन-धर्मसे विघ्नकी शान्ति आदि न होय तो वह अन्य उपायसे कैसे हो सकती है ? जो अंधकार सूर्यसे दूर नहीं हो सकता वह क्या अन्यग्रहसे दूर हो सकता है ? अतएव तु कुपथ्य समान मिथ्यात्वको त्याग दे, और उत्तम पथ्य समान अर्हद्धर्मकी आराधना कर, जिससे इस लोकमें तथा परलोकमें भी तेरे मनोरथ पूर्ण होवेंगे."
यह कह पारेकी भांति शीघ्र ही हंस कहीं उड गया । चकित हुई प्रीतिमती रानी पुनः पुत्रकी आशा होने से प्रसन्न हुई । चित्तमें कुछ दुःख हुआ हो तो धर्म, गुरु, आदि पर अत्यन्त ही स्थिर आस्था रहती है । जीवका ऐसा स्वभाव होनेसे प्रीतिमती रानीने सद्गुरुके पाससे श्रावक-धर्म अंगीकार किया । सम्यक्त्व धारण करनेवाली और त्रिकाल जिन-पूजा