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करने आवे, और ऐसी भावना भावे कि, " जानवरकी भांति निशिदिन परतंत्रता रहनेसे जिसको नित्य भगवान्को बन्दना करनेका नियम भी नहीं लिया जाता, ऐसे मुझ अभागेको धिकार है. " अस्तु, कृपराजा, चित्रमति मंत्री, वसुमित्र श्रेष्ठी और सुमित्र वणिकपुत्र इन चारों व्यक्तियोंने चारण-मुनिके उपदेश श्रावक-धर्म ग्रहण किया और क्रमशः वे सौधर्मदेवलोकको गये । धन्य भी अरिहंत पर भक्ति रखनेसे सौधर्मदेवलोक में महर्द्धिक देवता हुआ और वे चारों मालीकी कन्याएं उसके (धन्यके ) मित्र देवता हुई. कृपराजाका जीव देवलोक से पतित हो, जैसे स्वर्ग में देवराज इन्द्र है, वैसे वैताढ्य पर्वत पर स्थित गगनवल्लभ नगर में चित्रगति नामक विद्याधरोंका राजा हुआ । मंत्रीका जीव देवलोक से निकल कर चित्रगतिका पुत्र हुआ । उस पर मातापिता बहुत ही स्नेह करने लगे । बापसे भी अधिक तेजस्वी उस पुत्रका नाम विचित्रगति रखा । विचित्रगतिने यौवनावस्थामें आकर एक समय राज्यके लोभवश अपने चापको मार डालनेके लिये मजबूत व गुप्त विचार किया । धिक्कार है ऐसे पुत्रको ! जो लोभान्ध हो पिताका अनिष्ट चितवन करे ! सुदैव वश गोत्रदेवीने वह सर्व गुप्त विचार चित्रगतिको कहा. अचानक भय आनेसे चित्रगतिको उसी समय उज्वल वैराग्य प्राप्त हुआ और वह विचार करने लगा कि. हाय हाय ! अब मैं क्या करूं ? किसकी शरण में जाऊं ? किसको