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अपना अलौकिक वेग आकाश में भी दिखाने के निमित्त अथवा इन्द्रके अश्वको मिलने की उत्सुकता से ही वह अश्व एकदम आकाश में उडगया. व क्षणमात्रमें अदृश्य होगया तथा हजारों योजन पार कर, धर्मदत्तको एक विकट जंगल में पटक वह कहीं भाग गया. सर्पके फुंकारसे, बन्दरकी बुत्कारसे ( घुडकी से ), सूअर की धुत्कार से चीतेकी चित्कारसे चमरी गायके भांकारसे, रोझके बाकारसे व दुष्टशियालियों के फेत्कार से बहुत ही भयं कर वनमें भी स्वभाव ही से निडर धर्मदत्तको लेशमात्र भी भय न हुआ सत्य है, सत्पुरुष विपत्तिकाल में बहुत ही धैर्य रखते हैं, व संपदा आनेपर बिलकुल अहंकार नहीं रखते, वह गजेन्द्रकी भांति उस वनमें यथेच्छ फिरता हुआ, शून्यवनमें भी मनको शून्य न रखते, जैसे अपने राज-मंदिर में रहता था, वैसे ही स्वस्थतासे वहां रहा. परन्तु जिन - प्रतिमाका योग मात्र न मिलने से वह दुःखी हुआ, तथापि शान्ति रख उस दिन फलआदि वस्तु भी न खाकर उसने पापका नाश करनेवाला निर्जल उपवास ( चौविहार उपवास ) किया. शीतल जल व नाना भांतिके फल होने पर भी क्षुधा, तृपासे अत्यन्त पीडित धर्म - दत्तको इसी प्रकार तीन उपवास होगये । अपने ग्रहण किये हुए नियम सहित धर्म में यह कैसी आश्चर्य कारक दृढता है ! लू लगसे अत्यन्त मुरझाई हुई पुष्पमाला के समान धर्मदत्तका सर्वाग मुरझा गया था तथापि धर्ममें दृढता होनेसे उसका मन बहुत