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उसके सर्वोत्कृष्ट शरीरके साथही साथ उसके रूप, लावण्य आदि लोकोत्तर सद्गुणोंकी भी दिन प्रतिदिन वृद्धि होने लगी तथा धर्म करनेसे उसके सद्गुण विशेष सुशोभित हुए. कारण कि, इसने तीन वर्षकी उमर ही में " जिनेश्वर भगवानकी पूजा किये बिना भोजन नहीं करना." ऐसा अभिग्रह लिया. निपुण धर्मदत्तको लिखना, पढना आदि बहत्तर कलाएं मानो पूर्व ही में लिखी पढी हों, वैसे सहज मात्र लीला ही से शीघ्र आगई । पुण्य भी अपार चमत्कारी है. तत्पश्चात् उसने यह विचार कर कि "पुण्यानुबंधीपुण्यसे परभवमें भी पुण्यकी प्राप्ति सुखसे होती है, " सद्गुरुके पाससे स्वयं श्रावक-धर्म स्वीकार किया.
"धर्मकृत्य विधि बिना सफल नहीं होता." यह विचार कर उसने त्रिकाल देवपूजा आदि शुभकृत्य श्रावककी सामाचारीके अनुसार करना शुरु किया. हमेशा धर्म पर उत्कृष्ट-भाव रखनेवाला वह धर्मदत्त, अनुक्रमसे माध्यामिक अवस्थाको पहुंचा. तब मोटे सांटेकी भांति उसमें लोकोत्तर मिठास आया. एक दिन किसी परदेशी पुरुषने धर्मदत्तके लिये इन्द्रके अश्वसमान एक अश्व राजाको भेट किया. तब धर्मदत्त अपने समान यह अश्व भी स्वर्गमें दुर्लभ है ऐसा सोच योग्य वस्तुका योग करनेकी इच्छासे उसी समय पिताकी आज्ञा लेकर उस अश्व पर चढा. बडे खेदकी बात है कि, ज्ञानी मनुष्यको भी मोह वशमें कर लेता है ! अस्तु, धर्मदत्तके ऊपर चढतेही मानों