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थी. पंक्तिभेद सहन करना कठिन है, और उसमें भी प्रमुख व्यक्तिको जो पंक्तिभेद हो तो वह बिलकुल ही असह्य है. अथवा जो वस्तु दैवके आधीन है, उसके विषय में मुख्य, अमुख्यका विचार करनेसे क्या लाभ हो सकता है ? ऐसा होने पर भी उस बातसे मनमें दुःख धारण करनेवाले मूढहृदय लोगोंकी मूर्खताको धिक्कार है ! जब देवताओंकी करी हुई नानाप्रकारकी मानताएं भी सब निष्फल हुई, तब तो प्रीतिमतीका दुःख बहुत ही बढ गया. उपायके निष्फल होजाने पर, आशा सफल न होगी ऐसा जाना । एकसमय हंसका बच्चा घरमें बालककी भांति खेल रहा था, रानीने उसे हाथ पर ले लिया तो भी मन में भय न रखते हंसने मनुष्य-वाणीसे रानीको कहा कि, "हे भद्रे ! मैं यहां यथेष्ट स्वतंत्रतासे खेल रहा था, तू मुझे चतुर होकर भी खिलानेके रससे क्यों पकडती है ? स्वतंत्र विहार करनेवाले जीवों को बन्धनमें रहना निरन्तर मृत्युके समान है. स्वयं वंध्या होते हुए भी पुनः ऐसा अशुभ-कर्म क्यों करती है ? शुभकर्मसे धर्म होता है, और धर्मसे मनवांछित सफल होता है" प्रीतिमतीने चकित व भयभीत हो हंससे कहा कि, " हे चतुर शिरोमणे ! तू मुझे ऐसा क्यों कहता है ? मैं तुझे थोडी देर में छोड दूंगी, परन्तु उसके पहिले तुझे एक बात पूछती हूं कि, अनेक देवताओंकी पूजा, नानाप्रकारके दान आदि बहुतसे शुभकर्म मैं हमेशा करती हूं, तो