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वैसे ही आगमके केवल संस्कारसे आगमकी अपेक्षा न रखते असंगअनुष्ठान होता है, इतना ही भेद वचनअनुष्ठान में व असंगअनुष्ठान में होता है । प्रथम बालादिकको लेशमात्र प्रीति ही से अनुष्ठान संभव होता है, परंतु उत्तरोत्तर निश्चय से अधिक भक्ति आदि गुणकी प्राप्ति होती है । अतएव प्रीति, भक्ति प्रमुख चारों प्रकारका अनुष्ठान प्रथम शाखा में कहे हुई रुपये के अनुसार निश्चयपूर्वक जानो । कारण कि, पूर्वाचायनें चारो प्रकारका अनुष्ठान मुक्तिके निमित्त कहा है । दूसरी शाखा में कहे हुए रुपये के समान धर्मानुष्ठान भी सम्यग् - धर्मानुष्ठानका कारण होनेसे बिलकुल ही दूषित नहीं है । कारण कि पूर्वाचार्य कहते हैं कि, दंभकपटादि रहित भव्यजीवकी अशुद्ध धर्म क्रिया भी शुद्ध धर्म क्रिया आदिका कारण होती है, और उससे अंदर स्थित निर्मल सम्यक्त्वरूप रत्न कर्ममलका त्याग करता है । तीसरी शाखामे कहा हुआ धर्मानुष्ठान मायामृषादिदोषयुक्त होनेसे खोटे रुपये से व्यवहार करनेकी भांति महान अनर्थ उत्पन्न करता है। यह ( तीसरी शाखा में वर्णित रुपये समान ) धर्मानुष्ठान प्रायः भवाभिनंदी जीवोंको अज्ञानसं अश्रद्धा और भारेकमपनेसे होता है। चौथी शाखा में कहे हुए रुपये के समान धर्मानुष्ठान तो निश्चय आराधना तथा विराधना से रहित है, वह अभ्यासके वशसे किसी समय एकाध raat शुभ अर्थ होता है । जैसे किसी श्रावकका पुत्र कुछ