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देवताओं की कार्यसिद्धि मन में सोचते ही हो जाती है, राजाओं की कार्यसिद्धि मुखमेंसे वचन निकलते ही होती है, धनवान लोगोंकी कार्यसिद्धि धनसे तत्काल होती है, और शेष मनुष्योंकी कार्यसिद्धि वे स्वयं अंग परिश्रम करें तब होती है । अस्तुः प्रीतिमतीका दोहला दुःखसे पूरा किया जाय ऐसा था, किन्तु राजाने बडे हर्षसे तत्काल उसे पूर्ण किया । जिस भांति मेरुपर्वतके ऊपर की भूमि परिजातकल्पवृक्षका प्रसव करती है, वैसे ही प्रीतिमती रानीने प्रारंभ ही से शत्रुका नाश करनेवाला पुत्ररत्न प्रसव किया। अनुक्रमसे वह बहुत ही महिमावन्त हुआ ।
पुत्र जन्म सुनकर राजाको अत्यन्त हर्ष हुआ। इससे उसने उस पुत्रका अपूर्व जन्ममहोत्सव किया। और उसका शब्दार्थको अनुसरता धर्मदत्त नाम रखा । एक दिन आनन्दसे बडे उत्सव के साथ पुत्रको जिनमंदिरमें ले जा, अरिहंतकी प्रतिमाको नमस्कार करा कर भेटके समान भगवानके सन्मुख रख दिया । तब अत्यन्त हर्षित प्रीतिमती रानीने अपनी सखीको कहा कि, " हे सखि ! उस चतुर हंसने चित्तमें चमत्कार उत्पन्न करे ऐसा मुझ पर बहुत ही उपकार किया है। हंसके वच नानुसार करनेसे निर्धन पुरुष जैसे दैवयोग से अपने से कभी न छोडी जाय ऐसी निधि पावे, वैसे ही मैंने भी कभी न छोडा जा सके ऐसा जिन धर्मरूप एक रत्न और दूसरा यह पुत्र रत्न