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(२५६) ४ त्रिविध पूजा, ५ अरिहंतकी तीन अवस्थाकी भावना, ६ तीन दिशादखनसे विमुख रहना, ७ पंगके नीचेकी भूमि तीन बार पुंजना, ८ तीन वर्णादिक, ९ तीन मुद्रा और
४ तीनप्रकारकी पूजा-भगवानके अंग पर केशर, चंदन, पुष्प आदि चढाना वह प्रथम अंगपूजा १ धूप, दीप और नैवेद्यादि भगवानके सन्मुख रखना वह दूसरी अग्रपूजा २ भगवानके सन्मुख स्तुति, स्तोत्र, गीतगान नाटक आदि करना वह तीसरी भावपूजा ३.
५ तीन अवस्था:-पिंडस्थ अर्थात् छद्मस्थावस्था १ पदस्थ अर्थात् केवलीअवस्था २ रूपस्थ अर्थात् सिद्धावस्था ३। ६ जिस दिशाको जिनप्रतिमा होवे उसे छोड अन्य तीन दिशाओंको न देखना । ७ चैत्यवंदनादिक करते पग रखनेकी भूमि तीन बार पूंजना । ८ नमुत्थुणं आदि कहते सूत्र शुद्ध बोलना १ उसके अर्थ बिचारना २ जिनप्रतिमाका स्वरूप-आलंबन धारना ३ ।
९ दोनों हाथों की दशों अंगुलियां परस्पर मिलाकर कमलके दोडेके आकारसे हाथ जोड पेट पर कोहनी रखना यह प्रथम योगमुद्रा १ दोनों पैरकी अंगुलियोंके बीच में आगेसे चार अंगुलका और पीछेसे कुछ कम अन्तर रख काउस्सग्ग करना, यह दूसरी जिनमुद्रा २. दोनों हाथ मिलाकर कपालको लगाना, यह तीसरी मुक्ताशुक्तिमुद्रा ३।