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( २५७ ) . १० त्रिविध प्रणिधान, ये दश त्रिक हैं । इत्यादि विधिपूर्वक किया हुआ देवपूजा, देववंदन आदि धर्मानुष्ठान महान् फलदायी है । और विधिपूर्वक न करे तो अल्प फल होता है, वैसे ही अतिचार लगे तो प्रायः श्रेष्ठफलके बदले उलटा अनर्थ उत्पन्न होता है, कहा है कि
" धर्मानुष्ठानवैतथ्यात् , प्रत्यपायो महान भवेत् । रौद्रदुःखौघजननो, दुष्प्रयुक्तादिवौषधान् ॥ १॥
जैसे औषधि अविधिसे दी जाय तो उलटा अनर्थ हो जाता है, वैसे ही धर्मानुष्ठानमें अविधि होवे तो नरकादिकके दुःखसमुदाय उत्पन्न करने वाला भारी अनर्थ होता है । चैत्यवंदनआदि धर्मानुष्ठानमें अविधि हो तो सिद्धांतमें उसका प्रायश्चित भी कहा है । महानिशीथसूत्रके सातवें अध्ययनमें कहा है कि जो अविधिसे चैत्यवंदन करे, तो उसे प्रायश्चित लगता; कारण कि, अविधिसे चैत्यवंदन करनेवाला पुरुष अन्यसाधर्मियोंको अश्रद्धा उत्पन्न करता है। देवता, विद्या और मंत्रकी आराधना भी विधिसे
१० तीन प्रणिधान:-'जावंति चैइयाई' इस गाथासे चैत्यबंदन करनारूप प्रथम प्रणिधान १ 'जावंत केवि साहू' इस गाथासे गुरुको वंदन करनारूप दूसरा प्रणिधान २ 'जय वीयराय' कहनारूप तीसरा प्रणिधान ३ अथवा मन वचन और कायाका एकाग्र करना ये तीन प्रणिधान जानो।