________________
(२४४) अवणिअकुसुमाहरणं, पयइपइडिअममोहरच्छायं । जिणरूवं मज्जणपीढसंठिअं वो सिवं दिसउ ॥१॥
ऐसा कहकर निर्माल्य उतारना. पश्चात् पूर्वोक्त कलश ढोलना और संक्षपसे पूजा करना. तदनंतर धोये हुए व सुगंधित धूप दिये हुए कलशोंमें स्नात्र योग्य सुगंधित जल भरना
और उन सर्वकलशोंको एकपक्तिमें स्थापन कर उनके ऊपर शुद्ध, उज्दल वस्त्र ढांकना पश्चात् सर्व श्रावक अपने चंदन धूपआदि सामग्रीसे तिलक कर, हाथमें सुवर्णकंकण पहिर, हाथको धूप दे तथा ऐसी ही अन्य क्रियाएं करके पंक्तिबद्ध खडे रहें और कुसुमांजलिका पाठ बोलें । यथाः
संयवत्तकुंदमालइ- बहुविह कुसुमाई पंचवन्नाई। जिणनाहण्हवणकाले, दिति सुरा कुसुमंजली हिट्ठा ॥ १ ॥ ऐसा कहकर भगवानके मस्तक पर फूल चढाना ।
१ फूल तथा आभरणसे रहित, परन्तु स्वभावसिद्ध रही हुई मनोहरकांतिसे शोभित और स्नात्रपीठ ऊपर रहा हुआ ऐसा जिनपिम्ब तुमको शिवसुख दे ।
२ देवता कमल, मोगरेके पुष्प, मालति आदि पांचवर्णके बहुत सी जातिके फूलकी पुष्पांजलि जिनभगवानको स्नात्रमें देते हैं ।