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अभिषेकतायधारा, धारेव ध्यानमंडलाग्रस्य । भवभवनभित्तिभागान् भूयोऽपि भिनन्तु भागवती ॥ १ ॥
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पश्चात् अंगलहणा कर विलेपन आदि पूजा, पहिलेकी अपेक्षा अधिक करना. सर्वजातिके धान्यके पक्वान्न, शाक, घी, गुड आदि विगय तथा श्रेष्ठ फल आदि बलि भगवान् के सन्मुख धरना. ज्ञान, दर्शन, और चारित्र इन तीन रत्नोंके मालिक ऐसे तीनों लोकके स्वामी भगवान् के सन्मुख छोटे बडे के क्रमसे प्रथमश्रावकाने तीन पुंज ( ढिगली) करके उचित स्नात्र पूजादिक करना. पश्चात् श्राविकाओंने भी अनुक्रमसे करना. भगवान के जन्माभिषेकके अवसर पर भी प्रथम अच्युतइन्द्र अपने देवपरिवारयुक्त स्नात्रादि करता है, और उसके अनन्तर क्रमशः दूसरे इन्द्र करते हैं. शेषा ( चढाई हुई पुष्पमाला ) की भांति स्नात्र जल सिर पर छींटा होवे तो 'उसमें कोई दोष लगेगा' ऐसी कल्पना नहीं करना. हेमचन्द्रकृत वीरचरित्रमें कहा है कि- सुर, असुर, मनुष्य और नागकुमार इन्होंने उस स्नात्र जलको बारम्बार वंदन किया, और अपने सर्वाङ्ग पर छींटा. श्रीपद्मचरित्र में भी उन्नीसवें उद्देश में आषाढ शुदि अष्टमी से लेकर दशरथ राजाने कराये हुए अट्ठाई महोत्सव के चैत्य-स्नात्रोत्सव के अधिकार में कहा है कि -- दशरथ राजाने वह
९ ध्यानरूप मंडल की धाराके समान भगवान के अभिषेककी जलधारा संसाररूप महलकी भीतों को बारम्बार तोड डाले ।