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गीत, नाटक आदि जो अग्रपूजामें कहा है वह भावपूजाम भी आता है. वे ( गीत, नाटक ) महान फलके कारण होनेसे मुख्यमार्गसे तो उदायनराजाकी रानी प्रभावतीकी भांति स्वयं ही करना | निशीथचूर्णिमें कहा है कि-प्रभावती रानी स्नान कर, कौतुक मंगल कर, उज्वल वस्त्र पहिर यावत् अष्टमी तथा चतुर्दशीको भक्तिरागसे स्वयं ही रात्रिमें भगवानका नाटकरूप उपचार, करती थी और राजा ( उदायन ) भी रानीकी अनुवृत्तिमे स्वयं मृदंग बजाता था।
पूजा करनेके समय अरिहंतकी छमस्थ, केवली और सिद्ध इन तीन अवस्थाओंकी भावना करना । भाष्यमें कहा है कि
ण्हवणच्चगेहि छ उमत्थवत्थ पडिहारगेहिं केवलिअं। पलिअंकुस्सग्गेहि अ, जिणस्स भाविज सिद्धत्तं ॥१॥
अर्थ:-प्रतिमाके ऊपर भगवानको स्नान करानेवाले परिवारमें रचे हुए जो हाथमें कलश ले हाथी ऊपर चढे हुए ऐसे देवता, तथा उसी परिवारमे रचे हुए जो फूलकी माला धारण करनेवाले पूजक देवता, उनका मनमें चितवन कर भगचानकी छमस्थ अवस्थाकी भावना करना। छमस्थ अवस्था तीन प्रकारकी है। एक जन्मावस्था, दूसरी राज्यावस्था और तीसरी श्रामण्यावस्था-उसमें परिवार में रचित स्नान करानेवाले देवताके ऊपरसे भगवानकी जन्मावस्थाकी भावना करना । परिचारमें रचे हुए ही मालाधारक देवताके ऊपरसे भगवानकी