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(२३६) जिनमंदिर बहुतसे हो तो प्रतिदिन सातसे भी अधिक चैत्यवंदन होते हैं । श्रावकने, कदाचित् तीन समय पूजा करना न बने तो तीन समय देववंदन अवश्य करना चाहिये । आगममें कहा है कि- देवानुप्रिय ! आजसे लेकर यावज्जीव तक तीनों समय विक्षेप रहित और एकाग्रचित्तसे देववंदन करना, हे देवानुप्रिय ! अपवित्र, अशाश्वत और क्षणभंगुर ऐसे मनुष्यत्वसे यही सार लेने योग्य है । प्रभातके प्रथम जब तक साधु तथा देवको वंदना न की जाय, तबतक पानी नहीं पीना । मध्यान्हके समय जबतक देव व साधुकी वन्दना न की जाय, तबतक भोजन न करना । वैसे ही पिछले प्रहर देवको वन्दना किये बिना सज्जातले ( बिछौने पर ) न जाया जाय । ऐसा करना, कहा है कि--
सुपभाए समणोवासगरम पाणपि कप्पइ न पाउं । नो जाव चेइआई, साहूवि अ वंदिआ विहिणा ॥१॥ मज्झण्हे पुणरवि वंदिऊण निय मेण कप्पए भुत्तुं ।
पुण बंदिऊण ताई, पओससमयंमि तो सुअइ ॥२॥ प्रातःकाल जबतक श्रावकने देव तथा साधुको विधिपूर्वक वन्दन न किया हो तबतक पानी भी पाना योग्य नहीं, मध्यान्ह समय पुनः वन्दना करके निश्चयसे भोजन करना ग्राह्य है, संध्या समय भी पुनः देव तथा साधुको वन्दन करके पश्चात सो रहना उचित है।