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आदि मनुष्योंने कायोत्सर्ग, स्तुति आदि करके चैत्यवंदन किया" ऐसा कहा है, चैत्यवंदन जघन्यादिभेदसे तीन प्रकारका है । भाष्य में कहा है कि
नमुकारेण जहन्ना, चिइवंदश मज्झ दंडथुइजुअला । पणदंडथुइच उक्कग-थयपणिहाणेहिं उक्कोसा ॥१॥
अर्थ- नमस्कार अर्थात् हाथ जोडकर सिर नमाना इत्यादिलक्षणवाला प्रणाममात्र करनेसे, अथवा “ नमो अरिहंताणं " ऐसा कह नमस्कार करनेसे, किंवा श्लोकादिरूप एक अथवा बहुतसे नमस्कारसे, किंवा प्रणिपातदंडकनामक शकस्तव ( नमुत्थुणं ) एकबार कहनेसे जघन्य चैत्यवन्दन होता है. चैत्यस्तवदंडक अर्थात् " अरिहंतचेझ्याणं " कहकर अंतमें प्रथम एकही स्तुति ( थुइ ) बोले तो मध्यमचैत्यवंदन होता है. पांच दंडक अर्थात् १ शक्रस्तव, २ चैत्यस्तव ( अरिहंतचेइयाणं), ३ नामस्तव ( लोगस्स ), ४ श्रुतस्तव (पुक्खरवादी), ५ सिद्ध स्तव (सिद्धाण बुद्धाणं ) ये पांच दंडक कहकर अंतमें प्रणिधान अर्थात् जयवीयराय कहनेसे उत्कृष्ट चैत्यवंदन होता है ।
दूसरे आचार्य ऐसा कहते हैं कि- एक शक्रस्तवसे जघन्य, दो अथवा तीन शक्रस्तवसे मध्यम और चार अथवा पांच शकस्तबसे उत्कृष्ट चैत्यवंदन होता है । इरियावही के प्रथम अथवा प्रणिधान ( जयवीयराय ) के अंतमें शक्रस्तव कहना, और द्विगुण चैत्यवन्दनके अन्तमें भी शकस्तव कहने से तीन शक्र