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आदि विधि अनुसार करना । महानिशीथ में तीसरे अध्ययनमें कहा है कि- अरिहंत भगवंतकी गंध, माल्य, दीप, संमार्जन ( पुंजना ), विलेपन, विविध प्रकारका बलि, वस्त्र, धूप आदि उपचारसे आदर पूर्वक प्रतिदिन पूजा करते हुए तीर्थकी उन्नति करना चाहिये." || इति अग्रपूजा ||
अब भावपूजा कहते हैं.
जिसके अंदर जिनेश्वर भगवानकी पूजा सम्बन्धी व्यापारका निषेध आता है ऐसी तीसरी निसीही कर पुरुषने भगवान - की दाहिनी ओर और स्त्रीने बाई ओर आशातना टालने के हेतु व्यवस्था हो तो जघन्य से भी नव हाथ, घरदेशसर होवे तो एक हाथ अथवा आधा हाथ और उत्कृष्टसे तो साठ हाथ अवग्रहसे बाहर रहकर चैत्यवन्दन, श्रेष्ठस्तुतियां इत्यादि बोलने से भावपूजा होती है । कहा है कि चैत्यवंदन करनेके उचित स्थान पर बैठ अपनी शक्तिके अनुसार विविध आश्चर्यकारी गुणवर्णनरूप स्तुति स्तोत्र आदि कहकर देववन्दन करे वह तीसरी भावपूजा कहलाती है। निशीथ चूर्णिमें भी कहा है किवह गंधारश्रावक स्तव स्तुति से भगवानकी स्तवना करता हुआ वैताढ्यगिरि की गुफा में रात्रि में रहा । वैसे ही वसुदेवहिंडिमें भी कहा है कि वसुदेवराजाने प्रभात में सम्यक्त्वपूर्वक श्रावकके सामायिक प्रमुख व्रतको अंगीकार कर पच्चखान ले करके कायोत्सर्ग स्तुति तथा वंदना करी । इस प्रकार बहुत से स्थानों में " श्रावक