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देवताकी वक्तव्यता में भी द्वार और समवसरणके जिनबिंबकी पूजा मूलनायकजीकी पूजा कर लेनेके अनंतर कही है । यथा:
पश्चात् सुधर्मसभाको जाकर जिनेश्वर भगवानकी दाढ़ देखते ही वंदना करे, खोलकर मोरपंखकी पूंजणीसे प्रमार्जन करे, सुगंधित जलसे एकवीस बार प्रक्षालन कर गोशीर्षचंदनका लेप करे और पश्चात् सुगंधित पुष्पआदि द्रव्यसे पूजा करे । तदुपरान्त पांचों सभाओं में पूर्वानुसार द्वार प्रतिमाकी पूजा करे, द्वारकी पूजा आदि बाकी रहा वह तीसरे उपांग में से समझ लेना इसलिये मूलनायकजी की पूजा अन्य सर्व प्रतिमाओं से प्रथम और विशेष शोभासे करना । कहा है कि
उचिअत्तं पूआए, विसेसकरणं तु मूलबिंबस्स ।
जं पडइ तत्थ पढमं, जणस्स दिट्ठी सहमणं ।। १ ॥ मूलनायकजी की पूजा में विशेष शोभा करना उचित है; कारण कि, मूलनायकजी ही में भव्यजीवों की दृष्टि और मन प्रथम आकर पडता है !
शिष्य पूछता है कि, "पूजा, बन्दन आदि क्रिया एकको करके पश्चात् बाकी के अन्य सबको करनेमें आवे, तो उससे तीर्थंकरों में स्वामीसेवक भाव किया हुआ प्रकट दृष्टिमें आता है । एक प्रतिमाकी अत्यादरसे विशिष्ट पूजा करना और दूसरी प्रतिमाओं की सामग्री के अनुसार थोडो करना, यह भी भारी अवज्ञा होती है, यह बात निपुणबुद्धि पुरुषों के ध्यानमें आवेगी.”