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चौवीसी होने से क्षेत्रानामकी हैं तथा कितनी ही १७० भगवान की होनेसे महानामकी हैं । और दूसरी भी ग्रंथोक्त प्रतिमाएं हैं। अरिहंतकी एक ही पाट पर एक ही प्रतिमा होवे तो उसे व्यक्ता कहते हैं, एक ही पाट आदि पर चौबीस प्रतिमाएं होवें तो उन्हें क्षेत्रा कहते हैं और एक ही पाट आदि पर सत्तर प्रतिमाएं होवें तो उनको महा कहते हैं । फूलकी वृष्टि करते हुए मालाधर देवताओंकी जो प्रतिमाएं जिनबिम्बके सिर पर होती हैं उनका स्पर्श किया हुआ जल भी जिनबिम्बको स्पर्श करता है, तथा जिनबिम्बके चित्रवाली पुस्तकें भी एक दूसरेके ऊपर रहती हैं तथा एक दूसरीको स्पर्श करती हैं। इसलिये चौबी - सपट्ट आदि प्रतिमाओंके स्नानका जल परस्पर स्पर्श करे उसमें कुछभी दोष ज्ञात नहीं होता । कारण कि, ग्रंथों में उस विषयका पाठ है और आचरणाकी युक्तियां भी है । बृहद्भाष्य में भी कहा हैं कि कोई भक्तिमान श्रावक जिनेश्वर भगवानकी ऋद्धि दिखाने के हेतु देवताओंका आगमन तथा अष्ट प्रातिहार्य सहित एकही प्रतिमा कराता है, कोई दर्शन, ज्ञान व चारित्र इन तीनोंकी आराधना के हेतु तीन प्रतिमाएं कराता है, कोई पंचपरमेष्ठीनमस्कार के उज मणे में पंचतीर्थी ( पांच प्रतिमा) कराता है, कोई भरतक्षेत्र में चौवीस तीर्थंकर होते हैं अतः बहुमानसे कल्याणकतपके उजमणे में चौबीस प्रतिमाएं कराता है, कोई धनाढ्य श्रावक मनुष्य क्षेत्र में उत्कृष्ट एक सौ सत्तर तीर्थकर विचरते हैं, इस