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अंगुलिके अग्रभागसे व्यग्रचित्तसे तथा मेरुके उल्लंघनसे किया हुआ जप प्रायः अल्पफलका देनेवाला होता है। लोकसमुदायमें जप करनेकी अपेक्षा एकांतमें, मंत्राक्षरका उच्चारण करनेकी अपेक्षा मौनसे तथा मौनसे करनेकी अपेक्षा भी मनके अंदर जप करना श्रेष्ठ है, इन तीनोंमें पहिलेसे दूसरा और दूसरेसे तीसरा जप श्रेष्ठ है। जप करते हुए थक जाय तो ध्यान करना तथा ध्यान करते थक जाय तो जप करना, वैसे ही दोनों हीसे थक जाय तो स्तोत्र कहना ऐसा गुरु महाराजने कहा है। श्रीपादलिप्तमूरिजीने निजरचित प्रतिष्ठापद्धतिमें भी कहा है कि, मानस, उपांशु और भाष्य इस प्रकार जपके तीन भेद है। केवल मनोवृत्तिसे उत्पन्न हुआ तथा मात्र स्वयं ही जान सके वह मानसजप, दूसरा न सुन सके इस भांति अंदर बोलना वह उपांशुजप तथा दूसरा सुन सके इस प्रकार किया हुआ भाष्यजप है। इनमें पहिलेका शान्तिआदि उत्तमकार्यमें, दूसरेका पुष्ट्यादि मध्यमकार्यमें तथा तीसरेका अभिचार जारण, मारण आदि अधमकार्यमें उपयोग करना । मानसजप यत्नसाध्य है और भाष्यजप अधमफल देने वाला है, इसलिये साधारण होनेसे उपांशुजपका ही उपयोग करना । नवकारके पांच अथवा नव पद अनानुपूर्वी (विपरीतक्रम ) से भी चित्तकी एकाग्रताके लिये गिनना । उसका ( नवकारका ) एक एक अक्षर, पद इत्यादि भी गिनना । आठवें प्रकाशमें