________________
(१६४)
जइ मुग्गमासपभिई, विदले कच्चमि गोरसे पडइ । ता तसजीवुप्पत्तिं, भणंति दहिएवि दुदिणुवरि ॥१॥ जंमि उ पीलिज्जते, नेहा नहु होइ पिंति तं विदलं ।
विदलेवि हु उप्पन्नं, नेहजुअं होइ नो विदलं ॥ २॥" जो मूंग, उडद आदि विदल कच्चे गौरसमें पडे तो उसमें और दो दिन उपरान्त रहे हुए दहीमें भी त्रसजीवकी उत्पत्ति हो जाती है ऐसा पूर्वाचार्य कहते हैं । इस गाथामें "दुदिणुवरि" ( दो दिनके उपरान्त )के बदले "तिदिणुवरि" ( तीन दिवसके उपरान्त ) ऐसा भी पाठ कहीं है, परन्तु वह ठीक नहीं ऐसा मालूम होता है, कारण कि, "दध्यहतियातीतम्" ऐसा हेमचन्द्राचार्य महाराजका वचन है। घानीमें पीलने पर जिसमें से तेल नहीं निकलता उसे "विदल" कहते हैं । विदलजातिमें उत्पन्न हुआ हो तो भी जिसमें तेल निकलता होवे उसे विदल में नहीं गिनना । विदलकी पूपिका (आटेका पदार्थ विशेष ) आदि, केवल पानीमें पकाया हुआ भात तथा ऐसीही अन्य वस्तुएं बासी होवे तो, वैसेही सडा हुआ अन्न, फूला हुआ भात और पक्वान्न अभक्ष्य होनेसे श्रावकने उपयोग न करना । बावीस अभक्ष्यका तथा बत्तीस अनन्तकायका प्रकट स्वरूप 'स्वकृतश्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति से जान लेना। विवेकी पुरुपने जैसे अभक्ष्यका उपयोग न करना, वैसेही बैंगन, कायमां, टेमरू, जामुन, बिल्व फल, हरे पीलू, पके हुए करौंदे, गोंदे, पिचु,