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(२१५) किये हुए, पग पग पर जीवरक्षाका उपयोग रखता और एकाग्रमनसे भगवानके गुणगणका चिन्तवन करता हुआ तीन प्रदक्षिणा दे । घरदेरासरमें इस भांति प्रदक्षिणा आदि क्रिया करना नहीं बनता । दूसरे बडेमंदिरमें भी कारणवश ये किये न जाये, तो भी बुद्धिशाली मनुष्यने ये सर्व क्रियाएं निरन्तर करनेका परिणाम रखना चाहिये,भाव छोडना नहीं । सुश्रावक प्रदक्षिणा देनेके अवसर पर समवसरणमें बैठे हुए चतुर्मुख जगवानका ध्यान करता हुआ मूलगभारेमें और भगवानकी पीठ तथा बायां और दाहिना भाग इन तीनों दिशाओं में स्थित जिनविम्बको बन्दना करे । इसी हेतुसे सब जिनमंदिर समवसरणके स्थानपर होनेसे मूलगभारेके बाहरके भागमें तीनों दिशाओं में मूलनायकजीके नामसे जिनविम्ब कराये जाते हैं, “ अरिहंतकी पीठ छोडना " ऐसा कहा है, जिससे चारों दिशाओंको अरिहंतकी पीठ रहनेसे पीठकी ओर रहनेका दोष टलता है ।
पश्चात् जिनमंदिरका पूंजना, खुदने सीलक आदिका नामा लिखना इत्यादि आगे कहा जायगा उसके अनुसार यथायोग्य चैत्य चिन्ता तथा पूजाकी संपूर्ण सामग्री प्रथम ही से तैयार करके मुख्यमंडपादिकमें चैत्यव्यापारनिषेधरूप दूसरी निसीही करे । और मूलनायकजीको तीन बार वन्दना कर पूजा करे । भाष्यमें कहा है कि- उसके अनंतर प्रथम निसीही कर, मुखमंडपमें प्रवेश कर, जिनभगवानके सन्मुख