________________
(२१६)
घुटने और हाथ भूमिको लगा यथाविधि तीन वार वन्दना करे । पश्चात् आनन्दसे प्रफुल्लित हो सुश्रावक मुखकोश करके जिनेन्द्रप्रतिमा परका रात्रिका बासी फूल आदि निर्माल्य मोरपंखीसे उतारे । तत्पश्चात् स्वयं जिनेश्वरके मन्दिरको पूंजे, अथवा दूसरेसे पुंजावे । तदउपरान्त सुविधाके अनुसार जिनबिम्बकी पूजा करे । मुखकोश आठ पडका वस्त्र के टुकडेसे मुख तथा नासिकाका निश्वास रोकनेके निमित्त बांधना । बरसातके समय निर्माल्य में कुंथुआआदि जीवोंकी उत्पत्ति भी हो जाती है, इसलिये वैसे समयमें निर्माल्य तथा स्नात्रका जल जहां प्रमादी मनुष्यकी हालचाल न हो ऐसे पवित्रस्थानमें डालना । ऐसा करने से जीवकी रक्षा होती है और आशातना भी टलती है । घरदेरासरमें तो प्रतिमाको ऊंचे स्थान पर भोजनादिकृत्योंमें व्यवहारमें न आने वाले पवित्रपात्रमें स्थापन कर दोनों हाथोंसे पकडे हुए पवित्र कलशादिकके जलसे अभिषेक करना । उस समय--
बालत्तणम्मि सामिअ!, सुमेरुसिहरम्मि कणयकलसहिं । तिअंसीसरेहि ण्हविओ, ते धन्ना जेहिं दिट्ठोसि ॥ १ ॥
हे स्वामिन् ! चौसठ इन्द्रोंने बाल्यावस्थामें मेरुपर्वत पर सुवर्णकलशसे आपको स्नान कराया, उस समय जिन्होंने आपको देखा, वे जीव धन्य हैं ॥ १ ॥२ " तिअसासुरेहिं " इति पाठान्तरे ।