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(१६९) उसका पानी पीने की आज्ञा नहीं दी। वैसे ही क्षधासे पीडित शिष्योंको अचित्त तिलसे भरी हुई गाडी तथा वैसे ही बड़ी नीति ( दीर्घशंका ) की संज्ञासे पीडित शिष्योंको अचित्त ऐसी संडासकी भूमि उपयोगमें लेने की भी आज्ञा नहीं दी। इसका खुलासा इस प्रकार है कि, श्रुतज्ञानी साधु बाह्यशस्त्रका सम्बन्ध हुए बिना जलादिक वस्तुको अचित्त नहीं मानते । इसलिये बाह्यसम्बन्ध होनेसे जिसके वर्ण, गंध, रस आदि बदल गये हों ऐसा ही जलादिक ग्रहण करना ।
हरडे,...... इत्यादि वस्तु अचेतन हो तो भी अविनिष्ट ( नाश न पाई ) योनिके रक्षण निमित्त तथा क्रूरता आदि टालनेके हेतु दांत आदिसे नहीं तोडना । श्रीओघनियुक्तिमें पंचहत्तरवींगाथाकी वृत्तिमें कहा है कि:-- __ शंका-- अचित्त वनस्पतिकायकी यतना रखनेका प्रयोजन क्या है ?
समाधान-- वनस्पतिकाय अचित्त हो, तो भी गिलोय कंकटुक मूंग, इत्यादि कितनी ही वनस्पतिकी योनि नष्ट नहीं होती । जैसे गिलोय सूखी हो तो भी जल छींटनेसे अपने स्वरूपको पाती दिखाई देती है। ऐसे कंकटुक मूंग भी जानो। इसलिये योनिका रक्षण करनेके हेतु अचित्त वनस्पतिकायकी भी यतना रखनी यह न्यायकी बात है ।