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जाता है ।" एगसाडिअं उत्तरासंगं करेई" ( अर्थात् एक साडी उत्तरासन करे ) इत्यादिक सिद्धान्त के प्रमाणभूत वचन हैं इससे उत्तरीय वस्त्र अखंड ही रखना । दो या अधिक टुकडे जुडा हुआ न रखना । दुकुल (रेशमी वस्त्र पहिरकर भोजनादिक करे तो भी वह अपवित्र नहीं होता, " यह लोकोक्ति इस ( पूजा के ) विषय में प्रमाणभूत नहीं मानना । परन्तु अन्य
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की भांति दुकुल वस्त्र भी भोजन, मल, मूत्र तथा अशुचि वस्तुका स्पर्श इत्यादिसे बचाकर रखना चाहिये | वापरने पर धोना, धूप देना इत्यादि संस्कार करके पुनः पवित्र करना, तथा पूजा सम्बन्धी वस्त्र थोडे समय ही वापरना । पसीना, नाकका मल आदि इस वस्त्रसे नहीं पोंछना, कारण कि, उससे अपवित्रता होती है । पहिरे हुए अन्य वस्त्रोंसे इस वस्त्रको अलग रखना । प्रायः पूजाका वस्त्र दूसरेका नहीं लेना । विशेष कर चालक, वृद्ध, स्त्रियों आदिका तो कदापि नहीं लेना चाहिये । दूसरे का पहिना वस्त्र न पहिननेपर चाहक का दृष्टान्त.
सुनते हैं कि, कुमारपाल राजाका उत्तरीयवस्त्र बाहड मंत्रीके छोटे भाई चाहडने पहिरा, तत्र राजाने कहा कि, "मुझे नवीन वस्त्र दे " चाहडने कहा- "ऐसा नवीन वस्त्र सवालक्षदेशकी बेबेरापुरी ही में मिलता है, और वह वहांसे वहां के राजाका पहिरा हुआ ही यहां आता है । " पश्चात् कुमारपालने बेके राजाके पास से एक बिना वापरा दुकुल चत्र मांगा,