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(२००) विशुद्धिं वपुषः कृत्वा, यथायोग जलादिभिः ।
धौतवस्त्रे वसीत द्वे, विशुद्धे धूपधूपिते ॥ १२ ॥
अवसरके अनुसार जलादिकमे शरीर शुद्ध करके धोये हुए, धूप दे सुगंधित किये हुए और पवित्र ऐसे दो वस्त्र धारण करना। लोकमें भी कहा है कि हे राजन् ! देवपूजामें संधा हुआ, जला हुआ, और फटा हुआ वस्त्र न लेना, तथा दूसरेका वस्त्र भी धारण नहीं करना । एक बार पहिरा हुआ वस्त्र, जो वस्त्र पहिर कर मलोत्सर्ग, मूत्र तथा स्त्रीसंगं किया हो, वह वस्त्र देवपूजामें उपयोगमें न लेना। एकही वस्त्र धारण करके जीमना नहीं. तथा पूजा नहीं करना । विधाने भी कांचली चिना देवपूजा नहीं करना । इस परसे यह सिद्ध हुआ कि, पुरुषोंने दो वस्त्र बिना और स्त्रियोंने तीन वस्त्र विना देवपूजादि न करना चाहिये । धुला हुआ वस्त्र मुख्यपक्षसे तो क्षारोदक प्रमुख बहुत ऊंचा और वह श्वेतवर्ण रखना । उदायन राजाकी रानी प्रभावती आदिका भी श्वेत वस्त्र ही निशीथादिक ग्रंथमें कहा है। दिनकृत्यादिक ग्रंथों में भी कहा है कि-- . सेअवत्थानअंसणोत्ति" ( अर्थात श्वेतवस्त्र पहिरने वाला आदि ) क्षीरोदक आदि वस्त्र रखनेकी शक्ति न हो तो, दुकुल ( रेशमी ) आदि श्रेष्ठ वस्त्र ही रखना. पूजाषोडशकमें कहा है कि- "सितशुभवत्रणेति" इसकी टीकामें भी कहा है कि-श्वेत और शुभ वस्त्र पहिर कर पूजा करना । यहां शुभवस्त्र पट्टयुग्मादिक लाल, पीलाआदि लिया