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(१८६) खाना, ऐसी बातोंमें शास्त्रोपदेशकी बिलकुल आवश्यकता नहीं। लोकसंज्ञासे अप्राप्त ऐसे इहलोक परलोक हितकारी धर्ममार्गका उपदेश करने ही से शास्त्रकी सफलता होती है । शास्त्रोपदेश करनेवालेने सावध आरंभकी वचनसे अनुमोदन करना यह भी अयोग्य है । कहा है कि
सावजणवज्जाणं, वयणाणं जो न जाणइ विसेसं। वोत्तुंपि तस्स न खमं, किमंग पुण देसणं काउं? ॥ १॥"
जो सावध और अनवद्य वचन के भेद विशेषतः जानता नहीं, वह मुंहमें से एक वचन भी बोलनेके योग्य नहीं है, फिर भला उपदेश करनेकी तो बात ही कौनसी !
मलमूत्रादिक त्याग की विधि __ मल मूत्रका त्याग तो मौनकर तथा योग्य स्थान देखना आदि की विधि ही से करना उचित है । कहा है कि
मूत्रत्सर्ग मलोत्सर्ग, मैथुनं स्नानभोजने । संध्यादिकर्म पूजां च, कुर्य जापं च मौनवान् ॥ १॥" ।
भल मूत्रका त्याग,स्त्रीसंभोग,स्नान,भोजन, संध्यादि कर्म, देवपूजा और जप इतने कार्य मौन रखकर ही करना चाहिये । विवेकविलासमें भी कहा है कि- प्रातःकाल, सायंकाल तथा दिनमें भी उत्तरदिशाको और रात्रिमें दक्षिणदिशाको मुख कर मौन रख तथा वस्त्र ओढ कर मल मूत्रका त्याग करना । संपूर्ण नक्षत्रों के निस्तेज होने पर सूर्यविम्बका आधा उदय होवे तब