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एकाग्रता होने के निमित्त जिन भगवानकी कल्याणकादि भूमि इत्यादि तीर्थका अथवा अन्य किसी चित्तको स्थिर करनेवाले पवित्र व एकांत स्थानका आश्रय करना । ध्यानशतकमें कहा है कि
तरुण स्त्री, पशु, नपुंसक और कुशलपुरुष इनसे सर्वदा रहित ऐसा पवित्र एकांत स्थान सुनिराजका होता है। ध्यान करने के समय ऐसा ही स्थान विशेष आवश्यकीय है ! जिनके मन, वचन, कायाके योग स्थिरता पाये हों और इसीसे ध्यानमें निश्चल मन हुआ हो उन मुनिराजको तो मनुsrat भीडवाले गांव तथा शून्यअरण्यमें कोई भी विशेषता नहीं । अतएव जहां मनवचन काया के योग स्थिर रहें व किसी जीवको बाधा न होती हो वही स्थान ध्यान करनेवाले के लिये उचित है । जिस समय मनवचन काया के योग उत्तम समाधि में रहते हों, वही समय ध्यानके लिये उचित है । ध्यान करने - वालेको दिनका अथवा रात्री ही का समय चाहिये इत्यादि नियम ( शास्त्र में ) नहीं कहा । देहकी अवस्था ध्यान के समय जीवको बाधा देनेवाली न होवे उसी अवस्था में, चाहे बैठ कर, खडे रह कर अथवा अन्य रीति से भी ध्यान करना । कारण कि साधुजन सर्वदेशों में, सर्वकाल में और सर्वप्रकारकी देहकी चेष्टामें पापकर्मका क्षय करके सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञानको प्राप्त हुए। इसलिये ध्यान के संबंध में देश, काल और देहकी अवस्थाका कोई भी नियम सिद्धांत में नहीं कहा। जैसे मनवचनकायाके योग