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समकित मूल वारव्रतरूप श्रावकधर्मका ग्रहण अवश्य करना, कारण कि ऐसा करनेसे सर्वविरति ( चारित्र) के लाभ होनेका संभव रहता है । विरतिका फल बहुत ही बुडा है । मनवचनकायाके व्यापार न चलते हो तो भी अविरतिसे निगोद आदि ( अत्यन्त सूक्ष्म कीटाणु ) जांच की भांति बहुत कर्मबंधन, तथा दूसरे महान् दोष होते हैं, कहा है कि जो व्यक्ति भावसे विरतिको ( देशविरतिको अथवा सर्वविरतिको ) अंगीकार करे उसकी विरति करने में असमर्थ ऐसे देवता बहुत प्रशंसा करते हैं । एकेन्द्रिय जीव कवलआहार बिलकुल नहीं करते, तो भी उनको उपवासका फल नहीं मिलता, यह अविरतिका फल है । एकेन्द्रिय जीव, मनवचनकायासे सावद्य व्यापार नहीं करते, तो भी उनको उत्कृष्टसे अनन्तकाल तक उसी कायामें रहना पडता है, इसका कारण अविरति ही है । जो परभवमें विरति करी होती तो तियंच जीव इस भवमें चाबुक अंकुश, परोणी इत्यादिकका प्रहार तथा वध, बंधन, मारण आदि सैकडों दुःख न पाते । सद्गुरुका उपदेशआदि सर्व सामग्री होते हुए भी अविरति कर्मका उदय होते तो देवताकी भांति विरति स्वीकार करनेका परिणाम नहीं होता । इसीलिये श्रेणिक राजा क्षायिकसम्यग्दृष्टि होते हुए तथा वीरभगवानका वचन सुनना इत्यादि उत्कृष्ट योग होते हुए भी मात्र कौवे के मांस तककी भी बाधा न ले सका | अविरतिको विरतिसेही जीत सकते हैं और विरति