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अभ्याससे साध्य होती है, अभ्यास ही से सर्व क्रियाओंमें निपुणता उत्पन्न होती है । लिखना, पढना, गिनना, गाना, नाचना इत्यादि सर्व कलाकोशलमें यह बात मनुष्योंको अनुभव सिद्ध है । अभ्याससे सर्व क्रियाएं सिद्ध होती हैं, अभ्यासहीसे सर्व कलाएं आती हैं और अभ्यासहीसे ध्यान, मौन, इत्यादि गुणों की प्राप्ति होती है । अतएव ऐसी कौनसी बात है. जो अभ्याससे न हो सके ? जो निरन्तर विरतिके परिणाम रखनेका अभ्यास करे, तो परभवमें भी उस परिणामकी अनुवृत्ति होती है । कहा है कि--
भाविना भविना येन, स्वल्पापि विरतिः कृता । स्पृहयंति सुरास्तस्मै, स्वयं तां कर्तुमक्षमाः॥१॥ अभ्यासेन क्रियाः सर्वाः, अभ्यासात्लकलाः कलाः ।
अभ्यासाद् ध्यानमौनादि, किमभ्यासस्य दुष्करम् ? ॥२॥ जीव इसभवमें जिस किसी गुण अथवा दोषका अभ्यास करता है उस अभ्यासके योगहीसे वह वस्तु परभवमें पाता है । इसलिये जैसी इच्छा हो उसके अनुसार भी विवेकी पुरुषने बारह व्रत सम्बन्धी नियम ग्रहण करना चाहिये.
इस स्थानपर श्रावक तथा श्राविकाओंने अपनी इच्छासे कितना प्रमाण रखना, इसकी सविस्तार व्याख्या करना आवश्यक है । जिससे कि अच्छी भांति समझकर परिमाण रखकर नियम स्वीकार करे तो उसका भंग न हो । विचार करक उतना ही नियम लेना चाहिये जितना कि पल सके । सर्वनियमोंमें