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(१५४) लाभदायक होता है । परिग्रहपरिमाणव्रतमें दृढता रखने पर रत्नसार श्रेष्ठिका दृष्टान्त आगे वर्णन किया जावेगा। नियम इस प्रकार लेना चाहिये--
प्रथम मिथ्यात्वका त्याग करदे ना । पश्चात् नित्य शक्तिके अनुसार दिनमें तीन, दो अथवा एक बार भगवानकी पूजा, देवदर्शन, संपूर्ण देववंदन अथवा चैत्यवन्दन करनेका नियम लेना । ऐसे ही सामग्री (योग) होवे तो सद्गुरुको बडी अथवा छोटी वन्दना करना। योग न हो तो सद्गुरुका नाम ग्रहण करके नित्य वन्दना करना, नित्य वर्षाकालके चातुर्मासमें अथवा पंचपर्वी इत्यादिकमें अष्टप्रकारी पूजा करना । जीवन पर्यन्त नया आयाहुआ अन्न, पक्वान्न अथवा फलादिक भगवानको अर्पण किये बिना नहीं लेना । नित्य नैवेद्य, सुपारी आदि भगवानके सन्मुख रखना । नित्य तीनों चातुर्मासमें अथवा वार्षिक (संवत्सरी) तथा दीपोत्सवादिक (दीवाली आदिक ) पर अष्ट मंगलिक रखना। नित्य पर्वतिथिको अथवा वर्ष में कभी कभी खाद्य, स्वाद्य आदि सर्व वस्तु देव तथा गुरुको अर्पण करके शेष अपने उपभोगमें लेना। प्रतिमास अथवा प्रतिवर्ष ध्वजा चढा कर विस्तारसे स्नात्रमहोत्सवपूर्वक पूजा तथा रात्रि जागरण आदि करना । नित्य अथवा महीने में अथवा वर्षमें कभी चैत्यशालाको प्रमार्जन करना व समारना इत्यादि । प्रतिमास अथवा प्रतिवर्ष १ बीज, पंचमी, अष्टमी, ग्यारस, चौदश,