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वतीसूत्रके उन्नीसवें शतक के तीसरे उद्देशामें कहा है कि- वज्रमी शिला पर अल्प पृथ्वीकाय रखकर उसको वज्रमय पत्थर ही से जो इक्कीस बार चूर्ण किया जाय तो उस पृथ्वीकाय में कितने ही ऐसे जीव रहते हैं कि जिनको पत्थरका स्पर्श भी नहीं हुआ । हरडे, खारिक, किसमिस, दाख, खजूर, मिर्च, पीपल, जायफल, बादाम, वायम, अखरोट, निमजां, अंजीर, चिलगोंजा, पिस्ता, कबाबचीनी, स्फटिकके समान सैंधव आदि सज्जीक्षार, बिड नमक आदि कृत्रिम ( बनावटा) खार, कुमार आदि लोगोंने तैयार की हुई मट्टी आदि, इलायची, लौंग, जावित्री, नागरमोथा, कोकन आदि देशमें पके हुए केले, उकाले हुए सिंघाडे, सुपारी आदि वस्तु सौ योजन ऊपर से आई हुई होवे तो, अचित्त माननेका व्यवहार है । श्रीकल्प में कहा है कि, लवण आदि वस्तु सौ योजन जानेके उपरान्त ( उत्पत्ति स्थान में मिलता था वह ) आहार न मिलनेसे, एक पात्रसे दूसरे पात्र में डालने से अथवा एक कोठेमेंसे दूसरे कोठे में डालने से, पवन से, अग्निसे, तथा धुंएसे अचित्त हो जाती है ( इसी बातको विस्तारसे कहते हैं) लवण आदिक वस्तु अपने उत्पत्ति स्थान से परदेश जाते हुए प्रतिदिन प्रथम थोडी, पश्चात् उससे अधिक, तत्पश्चात् उससे भी अधिक, इस प्रकार क्रमशः अचित्त होते हुए सौ योजन पर पहुंचती है तब तो वे सर्वथा अचित्त होजाती हैं ।