________________
( १४० )
11
कहा है कि, पंचपरमेष्ठिके नामसे उत्पन्न हुई सोलह अक्षरकी विद्या है, उसका दोसौ जाप करे, तो उपवासका फल मिलता हैं । " अरिहंत सिद्धआयरिअउवज्झायसाहु " ये सोलह अक्षर हैं । इसी भांति मनुष्य तनिसौ बार छः अक्षरके मंत्रका चार सौ बार चार अक्षर के मंत्रका और पांचसौ बार " अ " इस वर्णका एकाग्रचित्तसे जप करे तो उपवासका फल पाता हैं। यहां " अरिहंतसिद्ध " यह छः अक्षरका तथा " अरिहंत यह चार अक्षरका मंत्र जानो । ऊपर कहा हुआ फल केवल जीवक प्रवृत्ति करने ही के लिये हैं । परमार्थसे तो नवकार मंत्र जपका फल स्वर्ग तथा मोक्ष है। वैसे ही कहा है कि- नाभिकमल में सर्वतोमुखि "अ" कार, शिरःकमले "सि" कार मुखकमले "आ" कार, हृदयकमले "उ" कार, कंठपंजरमें " सा" कार रहता है ऐसा ध्यान करना तथा दूसरे भी सर्वकल्याणकारी मंत्रबीजोंका चितवन करना । इस लोक संबंधी फलकी इच्छा करनेवाले मनुष्योंनें ( नवकार ) मंत्र ॐ सहित पठन करना और जो निर्वाणपदके इच्छुक हों उन्होंने कार रहित पठन करना । इस भांति चित्त स्थिर होनेके लिये इस मंत्रके वर्ण और पद क्रमशः पृथक् करना । जपादिकका बहुत फल कहा है, यथा— करोडों पूजा के समान एक स्तोत्र है, करोडों स्तोत्र के समान एक जप है, करोडों जपके समान ध्यान है और करोडों ध्यानके समान लय (चित्तकी स्थिरता ) हैं । चित्तकी