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(११६) राजर्षि मृगध्वजने कहा-'यह तो पूर्वकर्म का विपाक है" तब शुकराजने पूछा--"मैने पूर्वभवमें ऐसा कौनसा कर्म उपार्जन किया था ?"
केवली राजर्षि बोले---"जितारि राजाके भवसे पूर्वभवमें तू स्वभावसे भद्रक तथा न्यायनिष्ठ, श्रीग्रामनामकगांवमें ठाकुर था। पिता द्वारा हिस्से करके दिये हुए एक गांवको भोगने वाला तेरा एक सौतेला भाई था, वह स्वभाव ही से बहुत कायर था । एक समय वह श्रीग्रामको आकर वापस अपने गांवको जाता था, इतने ही में तूने हंसीसे उसे बंदीवानके समान अपने आधीन करके कहा कि “तू सुखपूर्वक यहीं रह , तुझे गांवकी चिन्ता करके क्या करना है ? बडे भाईके होते हुए छोटेभाईको व्यर्थ चिन्ता करनेकी क्या आवश्यकता है ?"
वह एक तो सौतेला भाई था दूसरा स्वभाव ही से कायर था ऐसा संयोग मिल जानेसे विचार करने लगा कि, "हाय २ ! निश्चय ही मेरा राज्य गया, मैं क्यों यहां आया ? अब क्या करना चाहिये ? " इस तरह विचार करके वह बहुत घबराया । कुछ समयके बाद जब तूने उसे छोडा तब उसके जीवमें जीव आया। उस समय हंसीमें भी तूने बहुत दारुण कर्म संचित किया। उसीके उदयसे अभी तुझे भी दुःसह राज्य वियोग हुआ है।