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कौन दोषका पात्र नहीं ? जन्म पाकर कौन मृत्युको प्राप्त नहीं होता ? संकट किस पर नहीं आया ? तथा किसे निरन्तर सुख मिलता है ?
एक समय सौराष्ट्रदेशमें भ्रमण करते हुए शुकराजका विमान पर्वतसे रुके हुए नदीके पूरकी भांति आकाश ही में रुक गया। व्याकुल चित्त ऐसा शुकराजको यह बात ऐसी दुखदायी प्रतीत हुई कि जैसे जले हुए अंगपर विस्फोटक (घाव) हुआ हो, गिरे हुए मनुष्य पर और भी प्रहार हुआ है, अथवा घाव पर नमक पडा हो । क्षणमात्रमें वह विमानसे उतर कर एकाएक रुक जानेका कारण देखने लगा, इतने ही में उसने केवलज्ञान पाये हुए अपने पिता राजर्षि मृगध्वजको देखा । मेरुपर्वत पर जैसे मंदार कल्पवृक्ष शोभता है वैसे ही वे राजर्षि सुवर्णकमलपर सुशोभित थे, तथा देवता उनकी सेवा में उपस्थित थे। शुकराजने सत्य भक्तिपूर्वक उनको वन्दना करके संतोष पाया, तथा सजलनेत्र होकर शीघ्र उनको अपने राज्यहरणका संपूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया।
पित्रादेः प्रियमित्रय स्वामिनः स्वाश्रितस्य वा । निवेद्यपि निजं दुःखं, स्यात्सुखीव सकृज्जनः ॥१॥८५२॥
मनुष्य अपने पितादिक, प्रियमित्र, स्वामी अथवा आश्रित इनमेंसे चाहे किसीके भी सन्मुख अपनी दुःख कहानी कह कर क्षणभर अपने जीवको सुखी मानता है।