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श और स इन दोनोंको समान मानकर श्रावकशब्दका अर्थ इस प्रकार होता है - प्रथम सकार मानकर " स्रवति अष्टप्रकारं कर्मेति श्रावकः " अर्थात् दान, शील, तप, भावना इत्यादिशुभयोगसे आठप्रकारके कर्मका त्याग करे, वह श्रावक है । दूसरा शकार मानकर " शृणोति यतिभ्यः सम्यक सामाचारीमिति श्रावकः " अर्थात् साधुके पाससे सम्यक् प्रकार से सामाचारी सुने वह श्रावक है । ये दोनों अर्थ भावश्रावककी अपेक्षाही से हैं । कहा है कि जिसके पूर्व संचित अनेक पाप क्षय होते हैं, अर्थात् जीवप्रदेशसे बाहर निकल जाते हैं, और जो निरन्तरतों से घिरा हुआ है, वही श्रावक कहलाता है ।
जो पुरुष सम्यक्त्वादिक पाकर प्रतिदिन मुनिराज के पास उत्कृष्ट सामाचारी सुनता है, उसे चतुर मनुष्य श्रावक कहते हैं । जो पुरुष 'श्री' अर्थात् सिद्धांत के पदका अर्थ सोचकर अपनी आगम ऊपरकी श्रद्धा परिपक्व करे, ' व ' अर्थात् नित्य कार्य में धनका व्यय करे, तथा ' क ' अर्थात् श्रेष्ठमुनिराज की सेवा करके अपने दुष्कर्मोका नाश कर डाले याने खपावे, इसी हेतुसे श्रेष्ठपुरुष उसे श्रावक कहते हैं । अथवा जो पुरुष ' श्रा' अर्थात् पदका अर्थ मनन करके प्रवचन ऊपर श्रद्धा परिपक्व करे, तथा सिद्धांत श्रवण करे, ' व ' अर्थात् सुपात्र में धन व्यय करे, तथा दर्शन समकित ग्रहण करे