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दूसरे विशेष अभिग्रहको धारण करता हो तो वह भावसे ३ उत्तरगुण श्रावक है । बारहव्रत में एक, दो इत्यादि व्रत अंगीकार करे तोभी भावसे व्रतश्रावकपन होता है। यहां बारहव्रत के एकेक, द्विक, त्रिक, चतुष्क इत्यादिसंयोगसे द्विविध त्रिविध इत्यादि भंग तथा उत्तरगुण और अविरति रूप दो भेद मिलानेसे श्रावकत्रतके सब मिलकर तेरह सौ चौरासी करोड बारह लाख सत्यासी हजार दो सौ दो भंग होते हैं ।
शंकाः - श्रावकत्रत में त्रिविधविविध इत्यादि भंगों का भेद क्यों नहीं सम्मिलित हुआ ?
समाधानः - श्रावक स्वयं पूर्व किया हुवा अथवा पुत्रादिकने किया हुवा आरंभिक कार्य में अनुमतिका निषेध नहीं कर सकता अतएव त्रिविध त्रिविध भंग नहीं लिया गया । प्रज्ञप्त्यादिग्रंथ में श्रावकको त्रिविधविविध पच्चक्खाण भी कहा है, वह विशेषविधि हैं । यथा: - जो श्रावक दीक्षा लेने ही की इच्छा करता हो, परंतु केवल पुत्रादिसंततिका पालन करने ही के हेतु गृहवासमें अटक रहा हो वही विविध २ प्रकारसे श्रावकप्रतिमाका अंगीकार करते वक्त पचखाण करे, अथवा कोई श्रावक स्वयंभूरमण समुद्र में रहनेवाले मत्स्य के मांसादिकका किंवा मनुष्यक्षेत्र से बाहर स्थूलहिंसादिकका किसी अवस्था में पच्चखान करे तो वही त्रिविध२ भंगेसे करे | इस प्रकार त्रिविधत्रिविधका विषय बहुत अल्प होने से वह यहां कहने की आवश्यकता न रखी। महाभाष्य में भी कहा