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(१०२) कर ली, पास्तवमें धर्म कार्यमें शीघ्रता करनी ही प्रशंसाके योग्य है। ___प्रावाजीदविलंबं च, धर्मे श्लाघ्या त्वरैव हि ॥७३४॥
यह नियम है कि किसी वस्तुका इच्छुक मनुष्य यदि उसी वस्तुके ऊपर किसी अन्य व्यक्तिको आसक्त हुआ देख तो उसे बहुत ही उत्सुकता होती है । इस नियमके अनुसार राजा मृगध्वज भी दीक्षा लेनेके लिये अत्यन्त उत्सुक हो मनमें विचार करने लगा कि, "शाश्वत आनन्दका दाता वैराग्य रंग अभी तक क्यों मेरे चित्तमें उत्पन्न नहीं होता है ? अथवा केवली भगवानने उस समय कहा है कि जब तूं चन्द्रावतीके पुत्रको देखेगा तब तुझे योग्यताकी प्राप्ति होकर उत्तम वैराग्य होगा, परन्तु वंध्याकी भांति चन्द्रावतीको तो अभी तक पुत्र नहीं होता अतएव क्या करूं. ?" इस भांति विचार निमग्न हो राजा मृगध्वज एकान्त में बैठा था इतने में तरुणावस्थासे अत्यन्त शोभा. यमान एक पुरुषने आकर राजाको नमस्कार किया । राजाने उसे पूछा कि, “तू कौन है ? " वह व्यक्ति राजाको उत्तर देती ही थी कि इतने ही में दिव्य आकाशवाणी हुई कि--"हे राजन यह आगन्तुक पुरुष चन्द्रवतीका पुत्र है । इस बातमें यदि तुझे संशय हो तो यहांसे ईशान कोणकी और पांच योजन दूर दो पर्वतोंके मध्यमें कदलीवन है, वहां यशोमति नामक एक योगिनी रहती है उसके पास जाकर पूछ । वह तुझे सर्व वृत्तांत कहेगी."