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उसने राज्यकी अधिष्ठात्रि गोत्रदेवीकी बहुत समय तक आराधना की। विषयान्ध पुरुषके कदाग्रहको धिक्कार है ! अधिष्ठायिकादेवीने प्रकट होकर चन्द्रशेखरसे कहा कि, "हे वत्स! वर मांग" चन्द्रशेखरने कहा "हे देवि! शुकराजका राज्य मुझे दे" देवीने कहा "जैसे सिंहके सन्मुख हरिणीका कुछ भी पराक्रम नहीं चलता वैसे ही दृढसम्यक्त्वधारी शुकराजके साम्हने मेरा पराक्रम नहीं चल सकता." चन्द्रशेखर बोला "जो तू प्रसन्न हुई हो और मुझे वर देती हो तो बलसे अथवा छलसे भी मेरा उपरोक्त कार्य कर ।"
चन्द्रशेखरकी भक्ति तथा उक्तिसे संतुष्ट हो कर देवीने कहा कि, "यहां तो छल ही का कार्य है, बलका नहीं. कोई समय जब शुकराज बाहर गांव जावे तब तूनें शीघ्र उसके राजमहलमें जाना, मेरे प्रभावसे तेरा स्वरूप ठीक शुकराजके सदृश हो जावेगा, उससे तू यथेष्ट भांतिसे शुकराजका राज्य भोग सकेगा" यह कह देवी अदृश्य होगई । चन्द्रशेखरने बड़े संतोषसे चन्द्रवतीको यह वृत्तान्त कह सुनाया।
एक समय तीर्थयात्रा करनेको मन उत्सुक होनेसे शुकराजने अपनी दोनों रानियोंसे कहा कि "हे प्रियाओ ! मै विमलाचल तीर्थको वंदन करनेके हेतु उस आश्रम पर जानेका विचार करता हूं" उन्होने कहा कि, "हम भी साथ चलेंगी, ताकि हमको भी अपने मातापिताका मिलाप हो जावेगा.