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एक समय शुकराजने उस विद्याधरसे पूछ। कि, "हे विद्याधर ! क्या तेरे पास आकाशगामिनी विद्या है ?" उसने कहा-- "महाराज ! है; परन्तु वह बराबर स्फुरण नहीं पाती। कोई विद्यासिद्ध पुरुष जो मेरे मस्तक पर हाथ धर कर वह विद्या पुनः मुझे दे तो वह सिद्ध हो सकती है, अन्यथा नहीं." इस पर शुकराज बोला कि, "तो प्रथम तूं मुझे वह विद्या दे, ताकि मैं विद्यासिद्ध हो कर कर्ज लिये हुए द्रव्यकी भांति तेरी विद्या तुझे वापस दे दूं." तदनुसार वायुवेग विद्याधरने संतोषसे शुकराजको आकाशगामिनी विद्या दी. वह भी विधि-पूर्वक उसे साधन करने लगा। दैवकी अनुकूलता तथा पूर्वभवका पुण्य दृढ होनेसे शीघ्र ही वह विद्या उसे सिद्ध होगई । तत्पश्चात् वही विद्या विद्याधरको वापस दी, उसे भी मुखपाठकी भांति सिद्ध होगई । इससे दोनों व्यक्ति आकाश तथा भूमिगामी होगये । वायुवेगने शुकराजको अन्य भी बहुतसी विद्याएं सिखाई, अगणित पूर्वपुण्योंका योग होने पर मनुष्यको कोई बात दुर्लभ नहीं है।
पश्चात् गांगलि ऋषिकी आज्ञासे उन दोनोंने एक विशाल विमान निर्मित किया और दोनों स्त्रियोंको साथ लेकर चंपापुरी नगरीमें गये । और मंत्र-सिद्ध पुरुषकी भांति कन्याके अपहरण से दुःखित राजाका शोक दूर किया । राजाने इसका परिचय पूछा तब वायुवेगने शुकराजका सम्पूर्ण वर्णन कह सुनाया।