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मुनिराजने कहा-- " इस जगत्में सूर्यकी भांति भव्यजीवरूप कमलको बोध करनेवाले मेरे गुरु केवली हैं. वे इसी देशमें हैं । मैं केवल अवधिज्ञानसे जो कुछ जानता हूं वह तुझ कहता हूं.बन्दरने जो कुछ कहा वह सर्व सत्य है ।" प्रभो ! " कैसे सत्य मानूं ?" श्रीदत्तके यह पूछने पर मुनिराज बोले कि, " हे चतुरपुरुष ! सुन । प्रथम तुझे तेरी पुत्रीका वर्णन सुनाता हूं।
तेरी माताको छुडानेके उद्देश्यसे तेरा पिता रणवीर समर नामक पल्लीपति के पास गया । 'ऐसा वीर पुरुष ही अपना कार्य करनेके सर्वथा योग्य है । यह विचार करके पल्लीपतिको सब वृत्तान्त कह सुनाया तथा द्रव्य भी भेंट किया । पश्चात् पल्लीपति ने श्रीमंदिरपुर पर चढाई की । समुद्रकी बाडके समान एकाएक चढी हुई पल्लीपतिकी सेनासे मंदिरपुरवासी प्रजाजन बहुत भयभीत हुए, तथा संसारसे भय पाये हुए जीव जैसे शिवसुखकी इच्छा रखके सिद्धिका विचार करे उसी मुजब सब लोग किसी सुरक्षित स्थानमें जानेका विचार करने लगे।उस समय तेरी स्त्री अपनी कन्याको लेकर गंगा किनारे बसे हुए सिंहपुर नगरमें अपने पिताके घर गई, तथा बहुत वर्ष तक वहां अपने भाईके पास रही। यह नियम ही है कि स्त्रियोंका पति, सासु. श्वसुर आदिका वियोग होजाय तो पिता अथवा भाई ही उसकी रक्षा करते हैं । एक समय आषाढमासमें तेरी कन्याको विषधर सांपने काटा, धिक्कार है ऐसे दुष्ट जीवोंके दुष्टकमको । सर्प विषसे वह कन्या अचेत होगई,