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( ७३ ) मुनिके ये बचन सुनकर श्रीदत्तको बहुत दुःख व आश्चर्य हुआ । पुनः उसने मुनिसे पूछा कि, "हे त्रैलोक्याधीश ! यह सब वृत्तान्त उस बन्दरने कैसे जाना ? महाराज ! जिस भांति मुनिराज जीवोंको संसार-बंधनसे बचाते हैं, उसी भांति उसने मुझे अंध-कूपमें गिरनेसे बचाकर बहुत ही अच्छा किया, परन्तु वह मनुष्यकी भाषा किस तरह बोलता था सो समझाइये"
मुनिमहाराज कहने लगे कि, "हे श्रीदत्त ! तेरा पिता सोमश्रेष्ठी स्त्रीके ध्यानमें निमग्न होकर नगरमें प्रवेश करते हुए एकाएक बाण लगनेसे मृत्यु पाकर व्यंतर हुआ। चित्तमें बहुत राग होनेसे भ्रमरकी भांति वह अनेकों वनोंमें भ्रमण करता हुआ इधर आया, तथा तुझे अपनी मातामें आसक्त हुआ देख कर उसने बन्दरके शरीर में प्रवेश करके तुझे सावधान किया । परभवमें जाने पर भी पिता सदैव पुत्रका हिताकांक्षी ही रहता है । वही तेरा पिता पुनः बन्दरके रूपमें अभी यहां आवेगा
और पूर्व-भवके प्रेमसे तेरी माताको पीठ पर बिठाकर तेरे देखते २ शीघ्र यहांसे ले जावेगा।"
मुनिराज यह कह ही रहे थे कि इतनेमें उसी बन्दरने आकर जैसे सिंह अम्बाजीको पीठ पर धारण करता है वैसे ही सुवर्णरेखाको अपनी पीठ पर बिठा कर वह अपने इष्ट स्थानको चला गया।