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(७४ ) ... इधर विभ्रमवतीने अपनी दासियोंसे पूछा कि "सुवर्णरेखा कहां है ?" दासियोंने उत्तर दिया कि, "एक लक्ष देना स्वीकार करके श्रीदत्त नामक श्रेष्ठी उसे उद्यानमें ले गया है." __- कुछ समयके पश्चात् विभ्रमवतीकी भेजी हुई दासियोंने एक दुकान पर बैठे हुए श्रीदत्तसे पूछा कि, "सुवर्णरेखा कहां है ?" श्रीदत्तने उत्तर दिया--"कौन जाने कहां गई ? मैं क्या उसका नौकर हूं ?"
दासियोंने जाकर यही बात विभ्रमवतीको कही। तब क्रोधसे राक्षसीके समान होकर उस वेश्याने राजाके सन्मुख जाकर, "हे राजन् ! मैं लुट गई, लुट गई !! इस भांति पुकार करना शुरू किया"। राजाने पूरा हाल पूछा तब वह कहने लगी कि, "मेरी साक्षात् सुवर्णपुरुषरूपी सुवर्णरेखाको चोर शिरोमणि श्रीदत्त श्रेष्ठीने कहीं छिपा दी है।" ___"श्रीदत्तने गणिकाकी चोरी करी यह बात कितनी असं भव है?," यह सोचकर राजाको बडा आश्चर्य हुआ और उसने श्रीदत्तको बुलाकर यह बात पुछी । श्रीदत्तने यह सोचकर कि 'जो मैं सब बात सत्य भी कह दूंगा तो भी ऐसी बात पर कौन विश्वास करेगा?" कुछ भी स्पष्ट उत्तर नहीं दिया। कहा भी है कि
असंभाव्यं न वक्तव्यं, प्रत्यक्षं यदि दृश्यते । यथा वानरसंगीतं, यथा तरति सा शिला ॥१॥